द्वंद

       द्वंद
ये कहानी है या समस्या पता नही बस अब इस कहानी का अंत तभी होगा जब इस समस्या का समाधान हो जाये ।
इसकी शुरुआत तो काफी पहले हुई लेकिन अंत अभी धूमिल है।
ये लड़ाई विचारों की है, मनोभावों की है, जो किस ब्यक्ति को एक शांत स्थान पर शोर शराबे से परेशान कर सकती है ।
ये शोर शराबा कही और नही उसके मस्तिक में होता है जो ब्यक्ति को विचारों के ऐसे दलदल में ले जाता है जहां वो दिन प्रतिदिन ओर फसता जाता है और एक दिन ये लंबी जिंदगी समाप्त हो जाती है चुकी जब किसी एक प्रश्न का उत्तर मिलता है वो अनेको दूसरे प्रश्नों को जन्म देता है यही द्वंद जीवनपर्यन्त व्यक्ति को उलझाये रखते हैं।
वो कहते हैं ना कि प्यार उसी को होता है जो करना चाहता है उसी प्रकार विचार उसी को आते है जिसको इसमें मजा आता है नही तो अन्य व्यक्ति की तरह ये लोग भी सांसारिक सुख का मजा लेते बजाय विचारों में उलझने के।
इसकी शुरुआत बचपन से ही हो जाती है जैसे बड़े बुजुर्गों ने कहा है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं उसी प्रकार ऐसे लोग बचपन से ही प्रश्नों का अंबार लगाते है परंतु वो ज्यादा फसते हैं जिनके प्रश्नों का उत्तर उन्हें मिलता रहता है ।
लेकिन ये दुख और बढ़ता है जब वो व्यक्ति अपने युवावस्था में प्रवेश करता है और अपने लिए आनंद का माहौल बनाने का के प्रयास करता है परंतु वो सभी प्रयास उसे दीर्घकालिक सुख नही दे पाते और उनकी इच्छा उनको अपना बंधक बनाती जाती |
लेकिन किसी ने सत्य कहा है कि मनुष्य का अंत हो सकता है परंतु उसके इच्छाओं का अंत नही होता।
मैने कई प्रयास किया कुछ सिद्ध पुरुषों से अपनी समस्या का समाधान मांगा सबने अलग अलग राह सुझाई।
कुछ ने कहा ध्यान लगाओ कुछ ने कहा कहां इन सब चक्कर में पड़ रहे कुछ कामधाम नही है क्या तुम्हारे पास।
एक व्यक्ति ने कहा ये सब व्यर्थ के काम है जिंदगी में ऐश होना चाहिए। सिर्फ मजे लो जिंदगी के , तब मुझे लगा चार्वाक आज भी जिंदा है मुनष्य रूप में नही विचार रूप में । मैंने चर्वाक को भी अपनाया और कुछ समय के लिए भौतिक सुख में खो गया लेकिन अन्ततः फिर एक दिन मन भर गया पाया कि जो आजकल ओशो नाम की विचारधारा समाज मे जगह बना रही वो चार्वाक से ही प्रभावित है।
फिर मैं ओर गहराई में गया परन्तु मुझे सगुण और निर्गुण पंथ भी नही समझ आये।
जहां सगुण में अपने विचारों को सिमटा हुआ पाया औऱ लगा जैसे हम किसी एक दृश्य में बंध गए हैं। हम जिसके सामने नतमस्तक हो रहे वो हमें न कुछ बता रहा न ही कुछ सूझा रहा।
निर्गुण में भी मुझे अफसोस करना पड़ा कि हम किसकी आराधना कर रहे न हम उसे देख पा रहे न ही वो हमारे सवालों का जवाब दे रहा कही ये भी एक विचार तो नही।
मेरे ख्याल से विचार का कोई मापदंड नही है और विचार एक अनोखा विचार है जो इस सृष्टि से बड़ा है और सुई के नोक से छोटा है।
एक यात्रा के दौरान मेरी मुलाकात एक साधु से हुई बात ही बात में मैन उनसे पूछ लिया कि हमारे विचारों का अंत क्यों नही है। कौन है जो हमे हमारे सभी सवालों का जवाब देगा।और हम संतुष्ट हो पाएंगे।
उन्होंने पहले एक कहानी सुनाई की एक बार एक विद्वान राम कृष्ण परमहंस के पास गए और कहा गुरुदेव मैं जो प्रश्न पूछना चाहता हु इसका उत्तर मैं काफी दिनों से ढूंढ रहा कई महापुरुष के पास गया कोई भी मेरे प्रश्नों का उत्तर नही दे पाया बड़ी उम्मीद के साथ आपके पास आया हु ओर कहा कि मैंने विश्व के अनेकों ग्रंथो की छानबीन कर ली कही मुझे उत्तर मिलता तो वो अनेको प्रश्नों को जन्म देता, इतना कह कर उसने परमहंस के समक्ष प्रश्नों की बारिश कर दी।
परन्तु हर प्रश्न के उत्तर देने की बजाय परमहंस जी मुसकरा देते इस पर विद्वान कुंठित हो उठते अंततः विद्वान बोले गुरवर आप मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर देने की बजाए हस रहे है क्या मेरे प्रश्न तुच्छ है। परमहंस ने कहा नही ऐसी बात नही है मैं आपके प्रश्न पर न हस कर खुद पर हस रहा हु की मुझ मुर्ख को इन प्रश्नों का उत्तर नही आता और मैं काली माँ से यही पूछ रहा कि माँ आपने मुझे इतना तेज दिमाग क्यों नही दिया।
इस पर विद्वान ने कहा प्रभु आप ही बताये मुझे इन प्रश्नों का उत्तर कहा मिलेगा। परमहंस ने कहा आप इतने विद्वान है कि आपने ऐसे प्रश्न ढूंढे है तो इसके उत्तर भी आप ही ढूंढ सकते हैं और समय आने पर इन प्रश्नों के उत्तर आपको मिलते जाएंगे।
अर्थात साधु ने मुझे बताया कि जैसे मेरा प्रश्न है कि मैं कैसा लग रहा , अब इस प्रश्न का उत्तर वही होगा जो मैं सुनना चाहता हूँ या जिस कारण इस प्रश्न की उत्पत्ति हुई।
अर्थात किसी प्रश्न का उत्तर उस प्रश्न के उत्तपत्ति में छिपा होता है। और प्रश्नकर्ता से अच्छा उत्तर उस प्रश्न का कोई नही दे सकता है।
उम्र के इस पड़ाव पर जहा मैं इस संसार से मुक्ति पाने वाला हु फिर भी कुछ प्रश्न मेरे मस्तिष्क में हलचल मचा रहे हैं।

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