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द्वंद

       द्वंद ये कहानी है या समस्या पता नही बस अब इस कहानी का अंत तभी होगा जब इस समस्या का समाधान हो जाये । इसकी शुरुआत तो काफी पहले हुई लेकिन अंत अभी धूमिल है। ये लड़ाई विचारों की है, मनोभावों की है, जो किस ब्यक्ति को एक शांत स्थान पर शोर शराबे से परेशान कर सकती है । ये शोर शराबा कही और नही उसके मस्तिक में होता है जो ब्यक्ति को विचारों के ऐसे दलदल में ले जाता है जहां वो दिन प्रतिदिन ओर फसता जाता है और एक दिन ये लंबी जिंदगी समाप्त हो जाती है चुकी जब किसी एक प्रश्न का उत्तर मिलता है वो अनेको दूसरे प्रश्नों को जन्म देता है यही द्वंद जीवनपर्यन्त व्यक्ति को उलझाये रखते हैं। वो कहते हैं ना कि प्यार उसी को होता है जो करना चाहता है उसी प्रकार विचार उसी को आते है जिसको इसमें मजा आता है नही तो अन्य व्यक्ति की तरह ये लोग भी सांसारिक सुख का मजा लेते बजाय विचारों में उलझने के। इसकी शुरुआत बचपन से ही हो जाती है जैसे बड़े बुजुर्गों ने कहा है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं उसी प्रकार ऐसे लोग बचपन से ही प्रश्नों का अंबार लगाते है परंतु वो ज्यादा फसते हैं जिनके प्रश्नों...